श्री कृष्ण का जन्म और मृत्यु: कब, क्यों और कैसे हुई पूरी कहानी | Shri Krishna Janm & Mrityu Full Details in Hindi

🕉️ श्री कृष्ण: जन्म से मृत्यु तक की पूर्ण कथा 

श्री कृष्ण हिंदू धर्म के सबसे पूजनीय और बहुआयामी व्यक्तित्वों में से एक हैं। उन्हें भगवान विष्णु का आठवां अवतार माना जाता है, जिनका जन्म अधर्म का नाश करने और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए हुआ था। उनका जीवन लीलाओं से भरा हुआ था – बाल्यकाल की माखन चोरी से लेकर महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश देने तक, और अंततः उनकी मृत्यु जो खुद एक रहस्य और दर्शन से जुड़ी है। इस लेख में हम जानेंगे कि श्री कृष्ण का जन्म कब और क्यों हुआ था, उनकी मृत्यु किसने और क्यों की, और उनके जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएँ।

श्री-कृष्ण-का-जन्म-और-मृत्यु

श्री कृष्ण का जन्म: कब, कहाँ और क्यों?


भगवान श्री कृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुआ था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, उनके जन्म से पहले मथुरा में कंस नामक एक अत्याचारी राजा का शासन था, जो अपनी ही बहन देवकी और उसके पति वासुदेव को बंदी बना चुका था। देवकी के विवाह के समय एक आकाशवाणी हुई कि उसका आठवां पुत्र कंस की मृत्यु का कारण बनेगा। इस भविष्यवाणी से भयभीत होकर कंस ने देवकी के पहले छह पुत्रों की निर्ममता से हत्या कर दी।

भगवान विष्णु ने देवकी के गर्भ से आठवें पुत्र के रूप में श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया। यह घटना भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र और मध्यरात्रि को हुई। वैज्ञानिक और खगोलीय गणनाओं के आधार पर यह तिथि लगभग 18 जुलाई 3228 ईसा पूर्व मानी जाती है। उस समय मथुरा की जेल में देवकी और वासुदेव कैद में थे। जब श्री कृष्ण का जन्म हुआ, तब जेल के द्वार अपने आप खुल गए और वासुदेव बालक कृष्ण को लेकर यमुना पार करके गोकुल पहुँचे, जहाँ उन्होंने उन्हें नंद बाबा और यशोदा माता को सौंप दिया। वहीं श्रीकृष्ण का पालन-पोषण हुआ।

श्री कृष्ण का जन्म केवल एक पौराणिक घटना नहीं, बल्कि एक दिव्य कार्य था – धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश। वे जीवन के हर पहलू – राजनीति, प्रेम, युद्ध, ज्ञान और भक्ति – में आदर्श हैं।

श्री कृष्ण की बाल लीलाएँ और युवावस्था


गोकुल और वृंदावन में श्रीकृष्ण ने अनेक लीलाएँ कीं। बचपन में उन्होंने माखन चुराना, गोपियों संग रासलीला करना, कालिया नाग को नाथना और गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी अंगुली पर उठाकर इंद्र का अहंकार तोड़ना जैसी घटनाएं कीं। उनकी बाल लीलाएँ न केवल मनोरंजन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि उनमें गूढ़ आध्यात्मिक संदेश भी छिपे हुए हैं।

युवावस्था में उन्होंने मथुरा लौटकर कंस का वध किया और अपने माता-पिता को मुक्त किया। इसके बाद उन्होंने द्वारका नगरी की स्थापना की और आगे चलकर महाभारत युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

महाभारत और भगवद् गीता


महाभारत युद्ध के समय श्रीकृष्ण ने पांडवों का साथ दिया, लेकिन स्वयं युद्ध में शस्त्र नहीं उठाया। उन्होंने अर्जुन के सारथी बनकर उन्हें भगवद् गीता का उपदेश दिया, जो आज भी मानवता के लिए सबसे बड़ा आध्यात्मिक ग्रंथ माना जाता है। गीता में कर्म, भक्ति, ज्ञान और मोक्ष के मार्ग का विस्तार से वर्णन है।

गांधारी का श्राप और यदुवंश का विनाश


महाभारत युद्ध में कौरवों की मृत्यु के बाद, कौरव माता गांधारी ने शोकवश श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि “तुम्हारा यदुवंश भी एक दिन आपसी संघर्ष में नष्ट हो जाएगा और तुम्हारी मृत्यु भी जंगल में अकेले होगी।” श्रीकृष्ण ने गांधारी के इस श्राप को स्वीकार किया।

36 वर्षों के बाद यह श्राप सत्य सिद्ध हुआ। द्वारका में एक उत्सव के दौरान यदुवंशी आपस में शराब पीकर झगड़ पड़े और अंततः एक-दूसरे को मार डाला। इस घटना को 'मौसाल पर्व' कहा जाता है। यह सब ऋषियों के एक और श्राप का परिणाम था, जो यदुवंशियों के द्वारा किए गए अपमान के कारण मिला था।


श्री कृष्ण की मृत्यु: कैसे, किसने और क्यों?


जब यदुवंश का सर्वनाश हो गया, तब श्रीकृष्ण अपने भाई बलराम के साथ प्रभास क्षेत्र (वर्तमान गुजरात) के जंगल में चले गए। बलराम ने योग समाधि ली और श्रीकृष्ण एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यानमग्न हो गए। उसी समय जरा नामक एक शिकारी वहाँ आया, जिसने श्रीकृष्ण के पैर की चमकती एड़ी को हिरण की आंख समझकर तीर चला दिया।

वह तीर श्रीकृष्ण की एड़ी में लगा। यह उनका एकमात्र कमजोर स्थान था, जिसे उन्होंने जानबूझकर प्रकट रखा था। जब जरा ने पास आकर देखा कि उसने गलती से भगवान को घायल कर दिया है, तो वह घबरा गया और क्षमा मांगने लगा। श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा कि यह सब पूर्वनिर्धारित था और उन्होंने जरा को क्षमा कर दिया।

श्रीकृष्ण की यह मृत्यु कोई साधारण मृत्यु नहीं थी, बल्कि उन्होंने अपने अवतार की समाप्ति स्वयं तय की थी। यह घटना 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व को हुई मानी जाती है, और इसी दिन कलियुग का प्रारंभ हुआ माना जाता है।

भालका तीर्थ: श्रीकृष्ण की मृत्यु स्थल


भालका तीर्थ , गुजरात के वेरावल शहर के पास स्थित है, जहाँ श्रीकृष्ण को तीर लगा था। वहाँ आज एक मंदिर है जिसमें श्रीकृष्ण की ध्यानमग्न मूर्ति, पीपल का वृक्ष और जरा की मूर्ति स्थापित है। पास में ही गीता मंदिर भी है जहाँ श्रीकृष्ण ने अंतिम श्वास ली थी।

श्रीकृष्ण की मृत्यु का दार्शनिक और आध्यात्मिक संदेश


श्रीकृष्ण की मृत्यु से यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर भी जब मानव रूप में अवतरित होते हैं, तो वे कर्म और नियति के नियमों से ऊपर नहीं होते। उनका संपूर्ण जीवन यह सिखाता है कि अहंकार, अधर्म, और पाप का अंत निश्चित है। उनकी मृत्यु भी यह सिखाती है कि माफ करना, स्वीकार करना और समय पर त्याग करना, आत्म-ज्ञान का हिस्सा है।

उनकी कथा का प्रत्येक चरण – जन्म, बाललीला, युद्ध, ज्ञान और मृत्यु – मानव जीवन के हर पहलू को गहराई से स्पर्श करता है। वे केवल एक देवता नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन हैं।

क्यों आज भी श्रीकृष्ण प्रासंगिक हैं


आज भी जब हम धर्म संकट, राजनीतिक द्वंद्व या नैतिक भ्रम में होते हैं, तो श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन उतना ही प्रासंगिक है। चाहे वह गीता का ज्ञान हो, प्रेम की परिभाषा हो, या त्याग की भावना — कृष्ण हमें हर मोड़ पर सही राह दिखाते हैं।

उनका जन्म केवल एक चमत्कार नहीं था, वह था आशा का अवतरण। और उनकी मृत्यु केवल अंत नहीं थी, वह था एक युग का परिवर्तन, धर्म और अधर्म के संघर्ष की समाप्ति और कलियुग की शुरुआत।

जय श्री कृष्ण!


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